पूज्य होने उपयोगी होना ही पड़ता है | अब चाहे वह उपयोगिता व्यावहारिक या प्रतीकात्मक | चाहे वो उपयोगिता कार्य प्रारम्भ होने से पूर्व संकल्प के निर्माण में हो या कार्य के दौरानउसकी सिद्धि में |
और शमी इन दोनों पैमानों पर खरा उतरता है| शमी तेजोमय है, यह वीरता का प्रतीक है | और यह अग्नि को जन्म देता है , सांकेतिक रूप में ही नहीं बल्कि अक्षरशः |
विजयादशमी या दशहरे के दिन शमी की पूजा की परंपरा है | मान्यता है की यह श्रीराम का प्रिय वृक्ष था और लंका आक्रमण से पूर्व उन्होने शमी के वृक्ष का पूजन करके आशीर्वाद प्राप्त किया था | बाद में लंका विजय के उपरान्त उन्होंने शमी का पूजन कर आभार व्यक्त किया था | शमीमिव
शमी वृक्ष का वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है। अपने 12 वर्ष के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास में पांडवों ने अपने सारे अस्त्र शस्त्र इसी पेड़ पर छुपाये थे, जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था। कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडवों ने शमी के वृक्ष की पूजा की थी और उससे शक्ति और विजय प्राप्ति की कामना की थी। तभी से यह माना जाने लगा है कि जो भी इस वृक्ष कि पूजा करता है उसे शक्ति और विजय प्राप्त होती है।
"शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥"
अर्थात "हे शमी, आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं। आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं। जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की मैं भी करता हूँ। मेरी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये।
अग्नि का दूसरा नाम शमी गर्भा है | "ज्यों तिल मा ही तेल है , ज्यों चकमक में आग" की तरह यह अपने हरित आवरण में अग्नि को धारण किये हुए है | कालिदास भी अभिज्ञान शाकुन्तलम् में कहते हैं
"अवेहि तनयां ब्रह्मन्नग्निगर्भां शमीमिव।"(अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
"ब्रह्मन् पृथ्वी के कल्याण हेतु दुष्यन्त द्वारा स्थापित वीर्य को धारण करती हुई 'पुत्री शकुन्तला को तुम अग्निधारण करने वाले शमी वृक्ष की भांति समझो।"
मार्च से मई माह के बीच इसकी शाखाओं से छिटकते हुए गुलाबी और पीले रंग के फूल दिवाली की फुलझड़ियों से झरती हुई आग की चिंगारियों सरीखे ही तो लगते हैं |
किन्तु अग्नि को शमीगर्भ यूँ ही नहीं कहते , यथार्थ रूप में भी शमी अग्नि का जन्मदाता है | यज्ञाग्नि उत्पन्न करने के लिए शास्त्रों में २ प्रकार की अरणियों का विधान है उसमे से प्रमुख अरणी शमी की है |अरणी काष्ठ के दो प्रभागों से मिलकर बनने वाला घर्षण द्वारा अग्नि उत्पन्न करने का यन्त्र था | ऊपरी भाग एक छड़ी होती थी जिसे उत्तरा कहा जाता था| जो कि अश्वथ (पीपल) की सख्त लकड़ी का होता था | निचले तख्ती वाले भाग को अधरा कहते थे जो कि शमी की कोमल लकड़ी का बना होता था | इसके बीच में एक छिछला छिद्र होता था | इस छिद्र पर लकड़ी की छड़ी को मथनी की तरह वेग से नचाया जाता था ।
"पृष्ठभागोऽयं यन्त्रेण केनचित् काले काले मार्जयित्वा यथास्रोतः परिवर्तयिष्यते। तेन मा भूदत्र शोधनसम्भ्रमः। सज्जनैः मूलमेव शोध्यताम्।"
शमी की कोमलता का प्रतिमान तो कालिदास ने यूँ दिया है की वो कितना भी कोमल है किन्तु उसको कमल की पंखुरी की धार से नहीं काटा जा सकता |
"इदं किलाव्याजमनोहरं वपुस्तपःक्षमं साधयितुं य इच्छति ।
ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति॥"
"शकुंतला के इस सहज मनोहर शरीर को जो तप के योग्य बनाना चाहता है वह निश्चय ही नीलकमल की पंखुरियों की धार से शमी वृक्ष को काटना चाहता है "
व्यास सम्मान से सम्मानित सुरेंद्र वर्मा ने इसी से प्रेरित होकर कालिदास के व्यक्तित्व और कृतित्व पर "काटना शमी का वृक्ष : पद्मपंखुरी की धार से" नामक उपन्यास लिखा है
ऋग्वेद की ही एक कथा के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा की थी।
मरुधर में भी उगने वाले , अकाल को सह सहने वाले शमी और यत्र तत्र सर्वत्र आसानी से उग आने वाले और बियाबानों में धराशायी हो चुकी इमारतों की दीवारों पर लटक कर भी लहलहाते हुए जीवट के धनी पीपल को ही जरूरत पड़ने पर अग्नि उत्पन्न करने के सर्वथा उपयुक्त मानना उचित ही लगता है |
हमारी संस्कृति की वाचिक परंपरा में उपयोगी बातों को कथाओं में बाँध कर उन्हें चिरंजीवी बना देने की अप्रतिम कला को शमी के सन्दर्भ में भी उद्धृत किया जा सकता है वो चाहे महर्षि भृगु के शाप के भयभीत होकर अग्नि के शमी के वृक्ष में छुपने का दृष्टान्त हो या शिव का तेज ग्राह्य करने में असमर्थ अग्नि देव के शमी वृक्ष की शरण में जाने का दोनों ही शमी के अग्नि के साथ अटूट सम्बन्ध को लोक स्मृति से विलोप नहीं होने देंगे |
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