जानीहि तन्मण्डनमिश्रधाम

 बहता पानी निर्मला 

ठहरा हुआ पानी शीघ्र ही अपनी निर्मलता खो देता है और अपनी जीवन दायी प्रवित्तियों को खो कर मलिन हो जाता है और पीने वालों को नुक्सान पहुंचाने लगता है| 

और ये विचारों, सभ्यताओं और संस्कृतियों पर भी सामान रूप से लागू होती है | जो अपने आपको समाज के अनुसार नहीं बदलती वो अप्रासंगिक हो जाती है| और उसका स्थान नयी ब्वस्तु ले लेती है | 

ठीक यही सनातन धर्म के साथ हुआ | वह धर्म जो जीवन व्यतीत करने का उत्तम मार्ग दिखता था वो कर्मकांडों में लिप्त होकर विकृत हो गया | और उसका स्थान समय  प्रसंगित धर्मों जैसे बौद्ध धर्म ने ले लिया जो शांति , सरलता और सम्मिलन की बात करता था| 

पर काल चक्र सबको सामान रूप से अपने को परिस्कृत करने और निरंतरता  बनाये रखने का अवसर देता है और अवसर का लाभ न उठाने वाले को क्रूरता पूर्वक पददलित कर देता है | ठीक यही बौद्ध धर्म के साथ भी हुआ | 

वर्षों तक सर्वव्यापी मान्यता रखने वाला बौद्ध धर्म आखिर क्षीण होने लगा और वैदिक धर्म के विद्वानों ने  भट्ट और मंडान मिश्र ने इसके पनरुथान के प्रयास आरम्भ कर दिए | 

ठीक उसी समय शंकराचार्य ने अपनी प्रतिभा से संसार को चकित करना आरम्भ किया और वैदिक धर्म की पताका को फहराने का अभियान आरम्भ किया | 

जोगी तो रमता भला 

आचार्य गोविंदपाद से शिक्षा प्राप्त करने के बाद आज्ञा पाकर शंकराचार्य बौद्ध धर्म के उन्मूलन और वैदिक धर्म की विजय पताका फहराने करने निकल पड़े | उन्होंने वैदिक धर्म के विरोधी धर्मों के विद्वानों को  शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की महानता स्थापित करने का निश्चय किया | वो दिग्विजय पर निकल पड़े और अन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारने लगे | एक एक करके सभी प्रतियोगी निरीश्वरवादी, बौद्ध और जैनधर्मी विद्वान परास्त होते गए और शंकर के विद्वत्त का डंका बजने लगा | 

उनकी दिग्विजय केवल अन्य धर्मो तक सीमित नहीं थी | शंकर अद्वैत मत की श्रेष्ठता स्थापित करना चाहते थे और अपनी इस विजय यात्रा में उन्होंने द्वैतवादियों और अन्य सम्रदायों के विद्वानों को भी पराजहित किया और वैदिक धर्म की स्थापना की |  

 अपनी इसी विजय यात्रा में शंकर प्रयाग मकुमारिल भट्ट से मिले | कुमारिल भट्ट उस समय अपनी गलतियों के प्रायश्चित के लिए अग्नि में प्रविष्ट हो चुके थे | कुमारिल भट्ट ने शंकर को अपने शिष्य मंडन मिश्र से मिलने को कहा | 

किन्तु मंडन मिश्र की रूचि निवृत्ति मार्ग में नहीं थी और वह गृहस्थ जीवन में रहकर अपने धर्म का पालन कर रहे थे | कुमारिल भट्ट ने शंकर को मंडन मिश्र मिलकर उन्हें अपने मार्ग का सहभागी बनाने को कहा |  किन्तु हठी मंडन मिश्र को मानाने का एक ही मार्ग था की उनको शास्त्रार्थ में पराजित किया जाए | 





 

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